मुगल बादशाह को देना पड़ा मर्दानगी का सबूत
औरंगज़ेब के दौर में जब संगीत पर पाबंदी लगी, तो गवैयों और संगीतकारों की रोजी-रोटी बंद हो गई। वे भूखे मरने लगे। आख़िर तंग आकर एक हज़ार कलाकारों ने जुमे के दिन दिल्ली की जामा मस्जिद से लंबा जुलूस निकाला और वाद्ययंत्रों को जनाज़ों की शक्ल में लेकर रोते-पीटते गुज़रने लगे। नमाज़ से लौटते वक़्त औरंगज़ेब की जब इन पर नज़र पड़ी, तो उसने पूछा, ‘यह किसका जनाज़ा लिए जा रहे हैं? जिसकी ख़ातिर इस क़दर रोया पीटा जा रहा है?’ जवाब मिला, ‘आपने संगीत का क़त्ल कर दिया है, उसे दफ़नाने जा रहे हैं।’ औरंगज़ेब का जवाब था, ‘क़ब्र ज़रा ग़हरी खोदना।
यह दिलचस्प वाकया लिखा है इतालवी पर्यटक मनूची ने अपने संस्मरण में। ऐसे ही दौर में जन्म हुआ था हिंदुस्तान के सबसे सबसे रंगीले बादशाह मुहम्मद शाह का। तब दिल्ली पर हुकूमत थी उसके परदादा औरंगज़ेब की। उसने हिंदुस्तान में एक ख़ास क़िस्म का कट्टर इस्लाम लागू कर रखा था। इसका शिकार सबसे पहले वे कलाकार बने, जिनके बारे में राय थी कि वो इस्लामी उसूलों का पालन नहीं करते।
फिर 1707 में औरंगज़ेब की मौत हुई और अगले 20 वर्षों में तो जैसे दिल्ली राजनीतिक विवाद का अखाड़ा बन गई। तीन बादशाह क़त्ल कर दिए गए और मुग़ल साम्राज्य सिकुड़ने लगा। दिल्ली की आबोहवा में लोगों का दम घुटने लगा। ऐसे में बसंत के बयार की तरह दिल्ली की हुकूमत की बागडोर आ गई मुहम्मद शाह रंगीला के हाथों में। फिर तो जैसे सब कुछ बदल गया। मुहम्मद शाह के दौर में वो तमाम कलाएं अपनी पूरी ताक़त के साथ सामने आ गईं, जो उससे पहले दब गई थीं। उसके तख्त पर बैठते ही सारे वाद्ययंत्र मानो क़ब्र से निकलकर फिर से जीवित हो उठे।
मुग़ल चित्रकला जो औरंगज़ेब के दौर में मुरझा गई थी, अब पूरी चमक के साथ सामने आ गई। मशहूर इतिहासकार और कला समीक्षक विलियम डेलरिम्पल कहते हैं, ‘मुहम्मद शाह रंगीला और बहादुर शाह ज़फर कोई बहुत सफल और लोकप्रिय मुग़ल सम्राट नहीं थे, लेकिन उनके शासनकाल में कला के क्षेत्र में कई असाधारण कार्य हुए। ऐसा लगता है कि मुहम्मद शाह रंगीला ने बिखर रहे मुग़ल साम्राज्य के ज़ख्मों पर मलहम लगाने की कोशिश की। उसने राजस्थान के दो मशहूर चित्रकार, निधा मल और चित्रमन को बुलाकर अपने दरबार में नियुक्त किया। इन चित्रकारों के बारे में विशेष जानकारी नहीं मिलती है, लेकिन इन कलाकारों की कृतियां शाहजहां काल के चित्रों से ज़्यादा कल्पनाशील, कहीं अधिक बोल्ड और चित्तग्राही थे। इन चित्रों में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच की रेखाएं धुंधली हो गईं थीं। तस्वीरों में बादशाह अपने दरबारियों के साथ होली खेलता दिखाई देता है। कुछ तस्वीरों में मुसलमानों के साथ हिंदू संत बातचीत करते दिखाई देते हैं।’
इनके चित्र मुग़ल चित्रकला के सुनहरे दौर के सिद्धस्त कलाकारों के मुक़ाबले पर रखे जा सकते हैं। शाहजहां के बाद पहली बार दिल्ली में मुग़ल चित्रकारों का दूसरा दौर शुरू हुआ। उनकी शैली की विशेषताओं में हल्के रंगों का इस्तेमाल महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त पहले दौर के मुग़लिया चित्रों में पूरा फ्रेम पूरी तरह भर दिया जाता था। मुहम्मद शाह के दौर में मंज़र में सादगी पैदा करने और खाली जगह रखने का रुझान पैदा हुआ। इसी दौर की एक और तस्वीर मशहूर हुई, जिसमें ख़ुद मुहम्मद शाह रंगीला को एक कनीज़ से सेक्स करते दिखाया गया है। कहा जाता था कि दिल्ली में अफवाह फैल गई थी कि बादशाह नामर्द है, जिसे दूर करने के लिए उसने इस तस्वीर का सहारा लिया।
अपने साम्राज्य में दरबारी चित्रकला को पुनर्स्थापित करने के साथ-साथ मुहम्मद शाह रंगीला ने सांस्कृतिक और बौद्धिक पुनर्जागरण का नेतृत्व किया। उसके वक़्त में दिल्ली के कवियों और चित्रकारों की प्रसिद्धि जितनी तेज़ी से बढ़ी, उसकी सैन्य क्षमता उतनी तेज़ी से कम होती गई। प्रसिद्ध विद्वानों, धर्मशास्त्रियों, मनीषियों, उर्दू कवियों, संगीतकारों, नर्तकियों और चित्रकारों के संगम से दिल्ली साहित्यिक और सांस्कृतिक गोष्ठियों का केंद्र बन गया। दिल्ली का कॉफ़ी हाउस कल्चर भी इन सबसे जीवंत हो उठा।
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