खाद के महंगे होने का मतलब महंगा अनाज और कीमतों के भार से किसानों को बुआई वाले रकबे में कमी आई. ऐसे में साफ है कि पहले से चल रहा अनाज संकट और भी गहरा हो सकता है. गैस, अनाज और खाद को दुनिया भर में निर्यात करने वाला इलाका जंग और आर्थिक प्रतिबंधों के बीच जूझ रहा है. जिसका खामियाजा अब धीरे-धीरे पूरी दुनिया मे दिखने को मिलेगा. खाने से लेकर अनाज उगाने तक के समानों की कीमतों में भी भारी उछाल देखा जा रहा है.
रूस-यूक्रेन जंग के बाद अब कीमतों में आई उछाल ने 2022 को पिछले पचास सालो के कमोडिटी मार्केट के तीसरे बड़े आर्थिक झटकों में शामिल कर दिया है. अंतराष्ट्रीय बाजारों में बढ़ती खाद की कीमतों से किसानों को बचाने के लिए भारत सरकार ने खाद सब्सिडी को दोगुना करने की तैयारी भी शुरू कर दी है.
खाद की कीमतें पिछले साल 80 फीसदी और इस साल तीस फीसदी बढ़ चुकी हैं. रूस-यूक्रेन की लड़ाई और उसके बाद लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों से खाद की आपूर्ति पूरी तरह चरमरा गई है दुनिया का एक चौथाई फास्फेट निर्यात करने वाले चीन ने खाद निर्यात पर पिछले साल में प्रतिबंध लगा दिया था. खाद की बढ़ती अंतरराष्ट्रीय कीमतों से बचाने के लिए सरकार इस साल खाद पर सब्सिडी को दो लाख करोड़ रुपए करने के मुड में है
रूस और यूक्रेन के काले सागर के किनारे अनाज और खाद से भरे जहाजों की जगह विस्फोटक माइंस से भरी पड़ी है. इटली के प्रधानमंत्री मारियो द्राघी ने और रूसी राष्ट्रपति ब्लादमिर पुतिन से अनाज संकट पर बात करने पहुंचे तो पुतिन ने यही कहा कि वो निर्यात के लिए हम तैयार हैं, लेकिन ये जो पोत मांइस से भरे पड़े हैं इन्हें पहले खाली करना होगा.
हालांकि, अनाज के बढ़ते संकट को हल करने के लिए मारियो ने “दुनिया के गरीबों के लिए यह बड़ा मानवीय संकट” से निपटने की दिशा में उठाया गया बहुत बड़ा कदम बता डाला. कुल मिलाकर स्थिति साफ है यूरोप जैसे देश भी आने वाले अनाज संकट से अब वाकिफ होने लगे हैं. अब खाद की बेतहाशा बढ़ती कीमतों से यह संकट और गंभीर रूप लेने लगा है.
इसका क्या असर होगा
महंगी खाद मतलब अनाज महंगा और कीमतों के भार से किसानों को बुआई वाले रकबे में कमी देखने को मिली है. इसका सीधा मतलब यही है कि पहले से चल रहा अनाज संकट अब और भी गंभीर रूप ले रहा है.
पिछले साल संयुक्त राष्ट्र संघ की खाद्य एजेंसी ने अनाज की कीमतों को दस सालो के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंचने की बात कही थी लेकिन रूस-यूक्रेन जंग और आर्थिक प्रतिबंधों के बाद अनुमान पहले से ज्यादा सही साबित होने लगा है.
फास्फोरस, नाइट्रोजन और पोटेशियम (एनपीके) से बनने वाली खाद की कीमतें भारत सहित पूरी दुनिया में बढ़ रही हैं. यूरिया और डायअमोनियम फॉस्फेट (डीएपी) की कीमतें भी नेचुरल गैस और कोयला महंगा होने से भी बहुत बढ़ी हैं. नेचुरल गैस नाइट्रोजन आधारित फर्टिलाइजर्स के उत्पादन के लिए उर्जा का मुख्य स्रोत माना जाता है।
क्या कहते हैं आंकड़े?
विश्व बैंक के अनुसार इस साल खाद की कीमतें लगभग तीस फीसदी तक ही बढ़ी हैं. ये बढ़ोतरी पिछले साल के मुकाबले 80 फीसदी उछाल के बाद की है. इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टिटयूट के अनुसार पिछले साल की तुलना में एनपीके की कीमतें इस साल जनवरी में 125 फीसदी बढ़ी है.
इस साल के शुरूआत और मार्च महीने के दौरान इनकी कीमतों में 17 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. यूरिया की कीमतें तो 2008 के संकट के समय को भी पार कर चुकी है और मुरियट ऑफ पोटाश (MoP) रूस-यूक्रेन यूद्ध से पहले 280 डॉलर प्रति टन के भाव से बिक रहा था, अब उसकी कीमत 500 डॉलर प्रति टन हो चुकी है.
उसी तरह फास्फोरिक एसिड का भाव 1330 डॉलर प्रति टन से बढ़कर 1530 डॉलर प्रति टन हो चुका है. जबकि अमोनिया 900 डॉलर प्रति टन से बढ़कर 1000 डॉलर प्रति टन के ऊपर जा पहुंचा है.
खाद की कीमतें बढ़ाने में प्राकृतिक गैस ने भी अहम भुमिका अदा कि है. यूरोप ने अब रूस से गैस लेना बंद कर दिया है. खाद बनाने वाले कारखानों को अब महंगी गैस मिलने लगी. जिस गैस की कीमत अप्रैल 2020 में 9 डॉलर प्रति मिलियन ब्रिटिश थर्मल यूनिट (Btu) थी वो युद्ध के बाद 25 डॉलर प्रति मिलियन ब्रिटिश थर्मल यूनिट (Btu)पर जा पहुंची है.
रूस-यूक्रेन जंग से पहले चीन के खाद पर लगाए प्रतिबंधों ने भी अंतरराष्ट्रीय खाद बाजार में बहुत ही हलचल मचा दी थी.
दुनिया की एक चौथाई फास्फेट, 13 फीसदी नाइट्रोजन और दो फीसदी पोटाश बेचने वीले चीन ने पिछले साल घरेलू कीमतों में बहुत ही इजाफे के बाद प्रतिबंध लगा दिया था जो जो अभी तक जारी है. चीन सरकार ने कहा था कि यह प्रतिबंध जून 2022 तक है.
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खाद की बढ़ती कीमतों का भारत पर असर
कृषि एक्सपर्ट्स के मुताबिक भारतीय किसान खासकर यूरिया, डीएपी और एमओपी खाद का बहुत प्रयोग करते है. जिसका महत्वपूर्ण हिस्सा दुसरे देशो से खरीदा जाता है. करीब 50 फीसदी पोटाश रूस और बेलारूस से आता है और 20 फीसदी फास्फोरिक एसिड रूस, बेलारूस और यूक्रेन से आता है और करीब 60 फीसदी डीएपी चीन और सऊदी अरब से खरीदा जाता है और एक तिहाई यूरिया चीन से आती है
फर्टिलाइज पॉलिसी एक्सपर्ट उत्तम गुप्ता का कहना है कि इस समय देश में आयातित खाद का बड़ा हिस्सा रूस-यूक्रेन जंग से बहुत प्रभावित हुआ है. देश में आयातित खाद का बड़ा हिस्सा रूस-यूक्रेन जंग से प्रभावित देशों और चीन से आता था. जिसने पिछले साल से निर्यात भी बंद कर दिया है.
24 फरवरी से जारी रूस-यूक्रेन जंग की वजह से भारत को होने वाली खाद की आपूर्ति बहुत बाधित हुई है. आंकड़े बताते है कि भारतीय किसान खाद के लिए काफी परेशानीयो का सामना करना पड़ रहा है किसानों को ज्यादा मुश्किले गैर-यूरिया खाद जैसे मॉप, डीएपी और एनपीके को लेने में हो रही है. भारत को आने वाले खरीफ सीजन के लिए 6.5 मिलियन टन डीएपी, 2.3 मिलियन टन एमओपी और 5.8 मिलियन टन एनपीके फर्टिलाइजर की जरूरत होगी.
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एस एंड पी ग्लोबल ने कहा है कि ‘फरवरी के अंत तक भारत में 8.1 मिलियन टन डीएपी व 1.9 मिलियन टन एमओपी और 7.7 मिलियन मिट्रिक टन एनपीके फर्टिलाइजर उपलब्ध था जो कि आने वाली खरीफ सीजन में अनुमानित मांग से बहुत कम है.’
खाद पर अनुदान
अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतों के बढ़ने से भारतीय किसानों को बचाने के लिए सरकार सब्सिडी यानी अनुदान की रकम को बढ़ाने की तैयारी में है. सरकार ने साफ – साफ कह दिया है कि ऐसे हालत में किसानों को हम अकेले नहीं छोड़ेगे और सरकार पूरी मदद करने के लिए पूरी तरह से तैयार है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साफ संकेत दिया कि सरकार किसानों की पूरी तरह से मदद करेगी, “हम 21वीं सदी में हैं और हमें इस बात पर थोड़ा विचार करना चाहिए कि हम अपने किसानों को अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के भरोसे नही छोड़ सकते. लाखों करोड़ों रुपए देश से बाहर भेजने की जगह हम उसका इस्तेमाल किसानों के हितो में नही कर सकते क्या
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पिछले वित्तीय साल में सरकार ने खाद सब्सिडी के लिए कुल 1.62 लाख करोड़ रुपए दिए थे. माना जा रहा कि चालू वित्तीय साल के लिए पहले ही सरकार ने 1.05 लाख करोड़ रुपए का आवंटन किया जा चूका है. अंतरराष्ट्रीय कीमतों में आई उछाल के बाद अब खाद सब्सिडी को बढ़ाकर दो लाख करोड़ से ऊपर करने की तैयारी में है भारत सरकार. हालांकि इस बढ़ोत्तरी का देश के राजकोषीय घाटे पर असर पड़ना स्वाभाविक सा है.
फर्टिलाइजर एक्सपर्ट गुप्ता के अनुसार सब्सिडी की यह नीति बहुत सही नहीं है. मूल रूप से देखा जाये तो सब्सिडी की रकम बढ़ाना अच्छा विकल्प नहीं है. बजटीय दृष्टिकोण से देखें तो सब्सिडी की यह नीति बहुत टिकाउ साबित नहीं हो सकती. यह दर्द तब महसूस होगा जब बजटीय दबाव की वजह से सरकार को राजकोषीय उदारता को दर किनार करके फिस्कल कंसोलिडेशन को अपनाना होगा.